Saturday 10 February 2018

प्रस्तावना

                               प्रस्तावना
      छोटा कटेकिस्म के लिए यह प्रस्थावाना स्वयं डॉ० मार्टिन लूथर द्वारा लिखी गई थी ।
                 ' साधारण पद्रिओं एवं उपदेशकों के लिए छोटा कटेकिस्म '
  मार्टिन लूथर की ओर से धर्मी पाद्री एवं उपदेशकों को हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह, दया और शांति मिले ।
           इस कटेकिस्म या मसीही शिक्षा को साधारण रूप में तैयार करने के लिए क्षेत्र की दुर्गत और दयनीय आवश्यकता ने मुझे विवश किया, जिसको मैं, निरीक्षक होकर बिभिन्न स्थानों में पाया । परमेश्वर दया करे ! मैंने ऐसी दुर्गति देखी, की साधारण लोग मसीही शिक्षा के विषय कुछ नहीं जानते हैं विशेष कर देहातों में । अफ़सोस की बात है, की कितने पाद्री सिखने में न होशियार हैं और न परिश्रम करते हैं । कितने मसीही कहलाते हैं,बपतिस्मा लेते हैं, और प्रभुभोज भी खाते हैं, जौभी न प्रभु की प्रार्थना, न विश्वास दर्पण और न दस आज्ञाओं को जानते हैं । वे प्रभु के बेसमझ बच्चेां के सामान जीते हैं, जौभी अब सुसमाचार आ गया है इन्होंने स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया है  ।
जो आदरणीय बिशपगण, आप ख्रिस्त को क्या जबाब देंगे, की आप लोगों ने जनता को ऐसे लज्जा जनक रास्ते में चलने दिया और अपने पद को एक क्षण भी प्रमाणित नहीं किया । आप मानवीय कानून-व्यवस्था के विषय तो बार-बार मांग करते हैं, पर आप कभी नहीं पूछते हैं, की क्या वे प्रभु की प्रार्थना, विश्वास दर्पण, दस आज्ञाओं या अन्य वचनों को कुछ जानते हैं ।  आप के गले (प्राण) के लिए हाय , हाय ।
         इस लिए मैं परमेश्वर की इच्छा के कारण आप प्रिय पाद्री व उपदेशक भाईओं से अर्जी करता हूँ, की आप अपने पद को ह्रदय से लें, अपने लोगों पर दया करें, जो आप को दिए गए हैं और हम लोगों की सहायता करें, विशेष
कर युवा पीढ़ी के लिए परमेश्वर के वचन को इस रूप में भी पहुँचा दें ।
          पहला यह की उपदेशक सब विशेष 'दस आज्ञाएँ, प्रभु की प्रार्थना, विश्वास दर्पण, सक्रामेंन्त के लिए वचन या पद स्थल भिन्न-भिन्न रूप में (सिखाने के लिए ) बदलते न रहें, परन्तु वही रूप लें जिस को बार-बार (एक वर्ष से दुसरे वर्ष ) दें । जवान- युवतियां को सिखाने के लिए एक निश्चित रूप लें, नहीं तो वे सहज से भटक जाऐंगे ।  आज ऐसा और आनेवाले वर्ष दूसरा सिखायेंगे तो परिश्रम ही व्यर्थ हो जाएगा ।  इस प्रकार से हमारे पूर्वजों ने देखा और दस आज्ञाऐं, प्रभु की प्रार्थना और विश्वास दर्पण को सिखाया ।  इसी लिए हमलोग भी साधारण लोगों को इस प्रकार छोटे रूप में सिखाएं  । ऐसा नहीं, की एक शब्द इधर-उधर करें अगला वर्ष फिर अदल-बदल करें  । अत: आप एक रूप ले लें की आप किस रूप में सिखाना चाहते हैं, आप उसी रूप मैं अगले वर्ष भी वैसा ही सिखाएं  । यदि आप समझदारों और बुधिमानों के लिए उपदेश दें, तो आप अपनी कला कुशलता से सिखा सकते हैं, और इन छोटे टुकड़ों से फूलों का सुन्दर गुच्छा दे सकते हैं, परन्तु युबा पीढ़ी के लिए बराबर एक ही रूप में इन शिक्षाओं अर्थात दस आज्ञाऐं, प्रभु की प्राथना, विश्वास दर्पण को इस प्रकार शब्द-शब्द सिखायें, की वे स्वंय
दुहरा सकें और कंठस्थ सीख सकें  ।
    जो कोई इन्हें भी सिखाना न चाहे, उन्हें कहा जाये, की वे (किस प्रकार) मसीही विश्वास को अस्वीकार करते हैं, अतः वे मसीही नहीं हैं, उन्हें सक्रामेंत में भी भागी होने न दें, उनके बच्चों को बपतिस्मा न दिया जाय, उन्हें किसी  प्रकार की मसीही स्वतंत्रता न दी जाये, वे पाप और उन्हीं के लोगों की और इसके द्वारा शैतान को ही सौंप दिया जाए  । ऐसों को घर के माँ-बाप या स्वामी खाना-पीना न दें और उन्हें इतना करें, की उन्हें राजाओं द्वारा 'देश-निकल' का दण्ड दिया जाय ।
 क्योंकि जैसे किसी को कोई दबा नहीं सकता है, उसी प्रकार कोई किसी को विश्वास के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकता है, परन्तु फिर भी उन्हें इसके लिए तो चलाया जाना चाहिए, की उनको यहाँ क्या न्याय और अन्याय है, क्योंकि
यदि कोई किसी शहर में बसना चाहता है , तो शहर के कानून एवं अधिकार के विषय जानना और उसके अनुसार चलना अवश्यक है, जिसको वह भोग करना चाहता है  ।  परमेश्वर दया करे, की वह विश्वास कर सके, वह ह्रदय में चाहे वयस्क हों या बच्चा  ।
        दुसरा यह की जब वचन को कंठस्थ कर लें, तो उन्हें समझ की बातें भी सिखाएं, ताकि वे जानें , की यहाँ क्या कहा गया है, फिर ऐसे ही रूप में वचन जो सिखाया गया है , उसी तरह लीजिये , बिना अदल-वदल किये । यदि कटेकिस्म कोई दुसरा रूप में बनाते हैं , तो उनको भी वैसा ही बार- बार सिखाइये, एक-एक करके , आवश्यक नहीं , की सभी को एक ही बार सिखा दें , पहली आज्ञा, दूसरी आज्ञा.........इसी तरह बार-बार सिखाइये, नहीं तो एक ही बार सब कुछ को सिखा देने से वे घबरा जाएँगे और वे कुछ सिख भी नहीं सकेंगे ।
          तीसरा यह, की जब आप छोटा कटेकिस्म को इस तरह सिखा चुके हैं, तब बड़ा कटेकिस्म को लें और इसके द्वारा अधिक पूर्ण एवं समझ की शिक्षा दें  । प्रत्यक आज्ञा, बिन्ती को खण्ड-खण्ड करके सिखायें , की प्रत्येक
खण्ड का क्या कम, लाभ, अच्छाई , खतरा , हानि है, जैसे की आप अपने पुस्तिकाओ में पाते हैं । विशेषकर दस आज्ञाओं के विषय सिखाएं , जिसकी जनसमूह को अधिक आवश्यक है, विशेषकर आठवीं आज्ञा की शिक्षा दें, क्योंकि कामकाजी, व्यापारी किसान और अन्य लोग भी अविश्वस्त हो गए हैं और चोरी बढ़ गई है , उसी प्रकार आठवीं आज्ञा , बच्चों और साधारण लोगों के लिए सिखायें , की वे शांत विश्वस्त , आज्ञाकारी और शांतिप्रिय हो, इसके लिए धर्म शास्त्र से उदहारण दें, क्योंकि ऐसों को इश्वर दण्ड या अशिष देता है  । विशेषकर माता-पिताओं और अधिकारिओं को शिक्षा देते हुए चलायें की वे ठीक शासन करें - बच्चों को पाठशाला भेजें , यह देखते हुए, की यदि वे ऐसा नहीं करते  हैं, तो कैसे अपराधी हैं और श्राप के भागी हैं क्योंकि वे मनुष्य के और ईश्वर के राज्य का नाश करते हैं और दोनों बन जाते हैं ।  उन्हें यह भी बतला दें , की बच्चों को सिखाने के लिए पद्रियों , उपदेशकों , लेखकों अदि के पास भेजें , यदि वे नहीं भेजते हैं, तो इश्वर उनको भयानक रूप में दण्ड देगा ।  यहाँ उपदेश देना अवश्यक है , की माँ-बाप और अधिकारी ऐसा पाप करते है , की कहा जा सकता है, ऐसा करने से शैतान को विशेष अवसर मिलता है  ।
     अन्त में यह, की पोप का अब अधिपत्य समाप्त हो गया है, अतः वे सक्रामेंत के लिए नहीं जाते हैं और उसको घृणा करते हैं । यहाँ कहना अवश्यक है, की इस तरह हम किसी को विश्वास के लिए या सक्रामेंत के लिए जबरदस्ती नहीं करते हैं, और न कोई व्यवस्था देते हैं और न समय और जगह ठहराते हैं, परन्तु उपदेश देते हैं की हमारे दबाव और व्यवस्था के बिना भी और हम पद्रिओं को सक्रामेंत दिलाने के दबाव के बिना भी, जो कोई  सक्रामेंत नहीं चाहता है और लेता है, साल में कम से कम एक बार या चार बार , वह एक  सक्रामेंत से घृणा करता, मसीही नहीं है, उसी प्रकार जैसे कोई सुसमाचार पर विश्वास नहीं करता है, या उसको नहीं सुनता है, वह मसीही नहीं है क्योंकि यीशु मसीह ने नहीं कहा, "ऐसा मत करो", इसको घृणा करो" परंतु कहा 'ऐसा करो, जब तुम पियो, इत्यादि क्योंकि वह चाहता है ।  की ऐसा सचमुच किया जाय," ऐसा किया करो " इत्यादि उसने कहा ।
   जो कोई  सक्रामेन्त को विशेष नहीं समझाता है वह इसका चिन्ह है, की उसके लिए कोई पाप, न देह, न शौतन, न जगत, न मृत्यु, न जिखिम, न नरक है, अर्थात वह इनको नहीं मानता है,जौभी वह गले तक इसमें फसा हुआ है, और दोहरी रीति से शौतान का है  । इस तरह उसके लिए न कोई अनुग्रह, न जीवन, न पारादीस, न स्वर्ग राज्य, न यीशु और न ईश्वर के ही अच्छे काम है  । क्योंकि यदि वह विश्वास करता, की उसमें इतनी बुराइयाँ हैं, की उसको ईश्वर के अच्छे काम की आवश्यकता होती , तब तो वह सक्रामेन्त का, जिसमे इतनी अच्छाइयाँ दी जाती है, नहीं छोड़ देता । ऐसों का सक्रामेन्त के लिए जबर्दस्ती करने का भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह स्वंय इसके लिये लालायित होगा और उसकी खोज करेगा और इसके लिए स्वंय आप को चलायगा, की आप उसके लिए सक्रामेन्त दें  ।
           अतः आप सक्रामेन्त के लिए कोई व्यवस्था न बनाएं, जैसे की पोप करता है ।परन्तु आप इस सक्रामेन्त के लाभ और हानि, आवश्य्कता और धार्मिकता, जोखिम और उद्धार को ही बतायें ; इस तरह वे आप के जबर्दस्ती के बिना ही जायेंगे , यदि वे नहीं आते हैं, तो उन्हें अनुभव करने दें और कहें की वे शैतान के हैं, और वे अपनी बड़ी आवश्यकता को और इश्वर के अनुग्रह को नहीं जानते हैं और अनुभव भी नहीं करते हैं  । परन्तु यदि आप उनको ऐसे बातें नहीं बतलाते हैं, या उनमें व्यवस्था और विष लाते हैं, तो यह आप का दोष होगा, की वे सक्रामेन्त से दूर रहते हैं , वे कैसे आलसी नहीं होंगे, यदि आप सोयेंगे, या चुपचाप रहेंगे? इसीलिए आप पाद्री और उपदेशकगण देखें, हम लोगों का पद पोप के अधीन के पद से भिन्न हो गया है , इसीलिए हमारे आगे अधिक परिश्रम और काम है, अधिक खरता और अदिक परीक्षाएं हैं, इसके बदले जग में कम वेतन एवं कम धन्यवाद , परन्तु मसीह स्वयं हम लोगों का फल होगा, जहाँ हम विश्वस्तता से काम करेंगे । इसके लिये सारे अनुग्रह का पिता हमारी सहायता करे, उसी का धन्यवाद , उसी की महिमा, सदलों हमारे प्रभु यीशु में होती रहे  ।
                                                                       आमीन  ।

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