Saturday 10 February 2018

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    विषय सूची
   डॉक्टर मार्टिन लूथर का छोटा कटेकिस्म 

     विषय
मार्टिन लूथर की प्रस्तावना
भाग -1 
खण्ड -1 दस आज्ञाएँ
खण्ड -2 प्रेरितों का विश्वास दर्पण
खण्ड -3 प्रभु की प्रार्थना
खण्ड -4 बपतिस्मा का सक्रामेन्त
खण्ड -5 प्रभुभोज अथवा वेदी का सक्रामेन्त
खण्ड -6 पाप स्वीकार
भाग -2 
खण्ड -7  पहला शेष संग्रह 
प्रभु का वेदी के निकट जाने वालों के लिए प्रश्नोत्तर
भाग -3
खण्ड -8 दूसरा शेष संग्रह
नियमित प्रार्थनाएँ (शाम और सुबह की प्रार्थना)
भाग -4
खण्ड -9  तीसरा शेष संग्रह :कर्तव्यों की सूचि
प्रति व्यक्ति अपना पाठ सीखें         

प्राक्कथन

  प्राक्कथन 
     १५२७ और १५२८ में लूथर और उसके सहकर्मीयों को सेक्सोनी क्षेत्र को कलीसियों का जायजा लेने का काम वहां के राजकुमार द्वारा दिया गया । जायजा के पश्चात् जो परिणाम निकले वे बहुत निराशाजनक थे । पुरोहित वर्ग और सामान्य लोगों के बीच में अज्ञानता बराबर थी और बिद्यालयों का बुरा हाल था  ।
    इन्हीं परिस्थितिओं से उत्प्रेरित होकर लूथर ने सामान्य लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखा और फ़ौरन चार्ट तैयार किया जिसमें साधारण भाषा में दस आज्ञाओं , प्रभु की प्रार्थना और प्रेरितों के विश्वास वाक्य की व्याख्या लिखी  । जब उसके सहकर्मी और सहयोगी पाठ्य सामग्री को उपलब्ध करा सकने में देर करने लगे तब लूथर ने स्वयं रचित उस चार्ट (कागज़ पट्ट) को जिसको उसने अपने दिवार पर लगा रखा था, अपने साथ लिया और संछिप्त , साधारण विश्वास की व्याख्या के रूप में प्रकाशित कर दिया  ।
       लुथर ने अपने इस कटेकिस्म की रचना परिवारिक आराधना के समय एक सहायक पुस्तिका के रूप में की थी ।
 इसकी प्रथावना में भी उसने ऐसे अभिभावकों की निंदा की है जो अपने बच्चों को ख्रीस्तीय शिक्षा देने में उदासीन हैं और उसकी उपेक्षा करते हैं और वे 'ईश्वर और मनुष्य के शत्रु ' होने की श्रेणी में आया जाते हैं।
मूल रूप में कटेकिस्म के लगभग सभी भाग के घर प्रधान के प्रति वाक्यओं से शुरु होते हैं । उदाहरण स्वरुप - दस आज्ञाओं को बिलकुल सादे रूप में लिखा गया है जिसे परिवार के मुखिया द्वारा परिवार को सिखाने में कठिनाई न हो  । कटेकिस्म नौ खण्डों (चार भाग) में  बिभाजित हैं और सभी प्रश्नोत्तर के प्रारूप में है। दस आज्ञाएँ, प्रेरितों का विश्वास वाक्य, प्रभु की प्रार्थना, बपतिस्मा, पाप स्वीकार एवं पाप मोक्षण और प्रभु भोज के अलावे सुबह एवं शाम की  प्रार्थनाऐं, खाने के समय की प्रार्थनाएं भी सम्मिलित है । पवित्रशास्त्र पर आधारित ' कर्तब्यों की सूचि ' का भी इसमें चयन है, जिसमें सम्भवत: मनुष्य परिस्थितिवश कर्तब्यों का निर्वाह नहीं कर पता है।
    विश्व में लूथरवाद सबसे ज्यादा प्रभावकारी कटेकिस्म के कारण ही हुआ है जो बड़े सत्य को ऐसी भाषा में प्रस्तुत करने में सक्षम हुआ जिसे सभी समझ सकें ।
 मार्टिन लूथर का छोटा कटेकिस्म दस आज्ञाओं की वाख्या ख्रिस्त के कामों की व्यख्या से पहले करता है। कटेकिस्म का विश्वास वाक्य विशेषकर ख्रिस्त में मिलने वाले मुफ्त त्राण को चिन्हित करता है  । और बपतिस्मा एवं प्रभु भोज की प्रचुर वाख्या, काथलिक संस्कारवाद और प्रोटेस्टेन्ट का लाक्षणिक/संकेतिक प्रयोग का दृष्टीकोण जिसको लूथर ने एक लम्बे धर्मवैज्ञानिक कार्य के रूप में विकसित किया ।
       मूल अर्थ में छेड़-छाड न करते हुए कटेकिस्म के इस संस्करण में भाषा का आंशिक सुधर किया गया है  । लौंगिक न्याय (Gender Justice) को ध्यान में रख कर स्त्रीवाचक क्रियापदों का सम्मिलन एवं इसकी बाहरी रूप रेखा में सजावट का प्रयास भी किया गया है । आशा है कटेकिस्म का नया रूप मण्डलियों के लिये उपयोगी होगी  ।

     इस पुस्तिका की उपयोगिता मण्डलियों में बनी रहे और इसका सदुपोयोग ख्रिस्तियता की समझ को स्पस्ट करने और विश्वास में मजबूती लाने के लिए होती रहे । लूथर की तरह एक व्याकुल मसीही होने के लिए हम भी प्रेरित हो सकें इन्हीं सुभकामनाओं एवं प्रार्थना के साथ छोटा कटेकिस्म का यह online संस्करण आपके हाथों में समर्पित है  ।

डॉ० मार्टिन लूथर का परिचय

                                                   
डॉक्टर मार्टिन लूथर का छोटा कटेकिस्म
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  डॉ० मार्टिन लूथर का
    जन्म की तारीख 10 नवंबर, 1483
   जन्म स्थान Eisleben
   मृत्यु तिथि 18 फरवरी, 1546 (62 वर्ष)
   मौत की जगह Eisleben
    राष्ट्रीयता जर्मन 

     डॉ० मार्टिन लूथर का  जन्म  Eisleben (पूर्ब जर्मनी ) के एक छोटे शहर में हुआ । उसकी वाल्यावस्था मान्सफेल्द (mansfeld) में गुजरी, क्योंकि माता-पिता जीविका निर्वाह के लिए वहीँ चले गए । १४९७ ई० में वह मगदेबुर्ग (magedeburg) के उच्च विद्यालय में बहाली किया गया । १५०१ ई० में उसने एरफूर्त(Erfurt) नगर के महाविद्यालय में नामांकन कराया एवं  १५०३ ई० में बी० ए० तथा १५०५ ई० में एम० ए० की शिक्षा पूरी की । पिता की इच्छा की विरुद्ध उसने क़ानूनी विद्या पढने के बदले मठवासी बनना बेहतर समझा, १५०७ ई० में उसको याजकीय पदाभिषेक मिला, पहले वह तत्व ज्ञान प्राध्यापक हुआ, पर बी० डी० और ङॉ॰ थेओल की उपाधि प्राप्त कर वह धर्मशास्त्रीय व्याख्यता बन गया,31 अक्टूबर १५१७ ई॰ में उसने 95 सूत्रों को बीतेनवर्ग (wittenberg) के महोउपसनालय के द्वार पर लटका कर मत-संसोधन का आरंभ किया, इसी के साथ उसने अनेक लेख,पर्चें,पुस्तिकाएं,गीत आदि रच कर मत-संसोधन पर विशेष जोर दिया, यह " छोटा कटेकिस्म " इन्हीं में से एक है, " बड़ा कटेकिस्म " भी हिन्दी में उपलब्ध है ! 

प्रस्तावना

                               प्रस्तावना
      छोटा कटेकिस्म के लिए यह प्रस्थावाना स्वयं डॉ० मार्टिन लूथर द्वारा लिखी गई थी ।
                 ' साधारण पद्रिओं एवं उपदेशकों के लिए छोटा कटेकिस्म '
  मार्टिन लूथर की ओर से धर्मी पाद्री एवं उपदेशकों को हमारे प्रभु यीशु मसीह का अनुग्रह, दया और शांति मिले ।
           इस कटेकिस्म या मसीही शिक्षा को साधारण रूप में तैयार करने के लिए क्षेत्र की दुर्गत और दयनीय आवश्यकता ने मुझे विवश किया, जिसको मैं, निरीक्षक होकर बिभिन्न स्थानों में पाया । परमेश्वर दया करे ! मैंने ऐसी दुर्गति देखी, की साधारण लोग मसीही शिक्षा के विषय कुछ नहीं जानते हैं विशेष कर देहातों में । अफ़सोस की बात है, की कितने पाद्री सिखने में न होशियार हैं और न परिश्रम करते हैं । कितने मसीही कहलाते हैं,बपतिस्मा लेते हैं, और प्रभुभोज भी खाते हैं, जौभी न प्रभु की प्रार्थना, न विश्वास दर्पण और न दस आज्ञाओं को जानते हैं । वे प्रभु के बेसमझ बच्चेां के सामान जीते हैं, जौभी अब सुसमाचार आ गया है इन्होंने स्वतंत्रता का दुरुपयोग किया है  ।
जो आदरणीय बिशपगण, आप ख्रिस्त को क्या जबाब देंगे, की आप लोगों ने जनता को ऐसे लज्जा जनक रास्ते में चलने दिया और अपने पद को एक क्षण भी प्रमाणित नहीं किया । आप मानवीय कानून-व्यवस्था के विषय तो बार-बार मांग करते हैं, पर आप कभी नहीं पूछते हैं, की क्या वे प्रभु की प्रार्थना, विश्वास दर्पण, दस आज्ञाओं या अन्य वचनों को कुछ जानते हैं ।  आप के गले (प्राण) के लिए हाय , हाय ।
         इस लिए मैं परमेश्वर की इच्छा के कारण आप प्रिय पाद्री व उपदेशक भाईओं से अर्जी करता हूँ, की आप अपने पद को ह्रदय से लें, अपने लोगों पर दया करें, जो आप को दिए गए हैं और हम लोगों की सहायता करें, विशेष
कर युवा पीढ़ी के लिए परमेश्वर के वचन को इस रूप में भी पहुँचा दें ।
          पहला यह की उपदेशक सब विशेष 'दस आज्ञाएँ, प्रभु की प्रार्थना, विश्वास दर्पण, सक्रामेंन्त के लिए वचन या पद स्थल भिन्न-भिन्न रूप में (सिखाने के लिए ) बदलते न रहें, परन्तु वही रूप लें जिस को बार-बार (एक वर्ष से दुसरे वर्ष ) दें । जवान- युवतियां को सिखाने के लिए एक निश्चित रूप लें, नहीं तो वे सहज से भटक जाऐंगे ।  आज ऐसा और आनेवाले वर्ष दूसरा सिखायेंगे तो परिश्रम ही व्यर्थ हो जाएगा ।  इस प्रकार से हमारे पूर्वजों ने देखा और दस आज्ञाऐं, प्रभु की प्रार्थना और विश्वास दर्पण को सिखाया ।  इसी लिए हमलोग भी साधारण लोगों को इस प्रकार छोटे रूप में सिखाएं  । ऐसा नहीं, की एक शब्द इधर-उधर करें अगला वर्ष फिर अदल-बदल करें  । अत: आप एक रूप ले लें की आप किस रूप में सिखाना चाहते हैं, आप उसी रूप मैं अगले वर्ष भी वैसा ही सिखाएं  । यदि आप समझदारों और बुधिमानों के लिए उपदेश दें, तो आप अपनी कला कुशलता से सिखा सकते हैं, और इन छोटे टुकड़ों से फूलों का सुन्दर गुच्छा दे सकते हैं, परन्तु युबा पीढ़ी के लिए बराबर एक ही रूप में इन शिक्षाओं अर्थात दस आज्ञाऐं, प्रभु की प्राथना, विश्वास दर्पण को इस प्रकार शब्द-शब्द सिखायें, की वे स्वंय
दुहरा सकें और कंठस्थ सीख सकें  ।
    जो कोई इन्हें भी सिखाना न चाहे, उन्हें कहा जाये, की वे (किस प्रकार) मसीही विश्वास को अस्वीकार करते हैं, अतः वे मसीही नहीं हैं, उन्हें सक्रामेंत में भी भागी होने न दें, उनके बच्चों को बपतिस्मा न दिया जाय, उन्हें किसी  प्रकार की मसीही स्वतंत्रता न दी जाये, वे पाप और उन्हीं के लोगों की और इसके द्वारा शैतान को ही सौंप दिया जाए  । ऐसों को घर के माँ-बाप या स्वामी खाना-पीना न दें और उन्हें इतना करें, की उन्हें राजाओं द्वारा 'देश-निकल' का दण्ड दिया जाय ।
 क्योंकि जैसे किसी को कोई दबा नहीं सकता है, उसी प्रकार कोई किसी को विश्वास के लिए जबरदस्ती नहीं कर सकता है, परन्तु फिर भी उन्हें इसके लिए तो चलाया जाना चाहिए, की उनको यहाँ क्या न्याय और अन्याय है, क्योंकि
यदि कोई किसी शहर में बसना चाहता है , तो शहर के कानून एवं अधिकार के विषय जानना और उसके अनुसार चलना अवश्यक है, जिसको वह भोग करना चाहता है  ।  परमेश्वर दया करे, की वह विश्वास कर सके, वह ह्रदय में चाहे वयस्क हों या बच्चा  ।
        दुसरा यह की जब वचन को कंठस्थ कर लें, तो उन्हें समझ की बातें भी सिखाएं, ताकि वे जानें , की यहाँ क्या कहा गया है, फिर ऐसे ही रूप में वचन जो सिखाया गया है , उसी तरह लीजिये , बिना अदल-वदल किये । यदि कटेकिस्म कोई दुसरा रूप में बनाते हैं , तो उनको भी वैसा ही बार- बार सिखाइये, एक-एक करके , आवश्यक नहीं , की सभी को एक ही बार सिखा दें , पहली आज्ञा, दूसरी आज्ञा.........इसी तरह बार-बार सिखाइये, नहीं तो एक ही बार सब कुछ को सिखा देने से वे घबरा जाएँगे और वे कुछ सिख भी नहीं सकेंगे ।
          तीसरा यह, की जब आप छोटा कटेकिस्म को इस तरह सिखा चुके हैं, तब बड़ा कटेकिस्म को लें और इसके द्वारा अधिक पूर्ण एवं समझ की शिक्षा दें  । प्रत्यक आज्ञा, बिन्ती को खण्ड-खण्ड करके सिखायें , की प्रत्येक
खण्ड का क्या कम, लाभ, अच्छाई , खतरा , हानि है, जैसे की आप अपने पुस्तिकाओ में पाते हैं । विशेषकर दस आज्ञाओं के विषय सिखाएं , जिसकी जनसमूह को अधिक आवश्यक है, विशेषकर आठवीं आज्ञा की शिक्षा दें, क्योंकि कामकाजी, व्यापारी किसान और अन्य लोग भी अविश्वस्त हो गए हैं और चोरी बढ़ गई है , उसी प्रकार आठवीं आज्ञा , बच्चों और साधारण लोगों के लिए सिखायें , की वे शांत विश्वस्त , आज्ञाकारी और शांतिप्रिय हो, इसके लिए धर्म शास्त्र से उदहारण दें, क्योंकि ऐसों को इश्वर दण्ड या अशिष देता है  । विशेषकर माता-पिताओं और अधिकारिओं को शिक्षा देते हुए चलायें की वे ठीक शासन करें - बच्चों को पाठशाला भेजें , यह देखते हुए, की यदि वे ऐसा नहीं करते  हैं, तो कैसे अपराधी हैं और श्राप के भागी हैं क्योंकि वे मनुष्य के और ईश्वर के राज्य का नाश करते हैं और दोनों बन जाते हैं ।  उन्हें यह भी बतला दें , की बच्चों को सिखाने के लिए पद्रियों , उपदेशकों , लेखकों अदि के पास भेजें , यदि वे नहीं भेजते हैं, तो इश्वर उनको भयानक रूप में दण्ड देगा ।  यहाँ उपदेश देना अवश्यक है , की माँ-बाप और अधिकारी ऐसा पाप करते है , की कहा जा सकता है, ऐसा करने से शैतान को विशेष अवसर मिलता है  ।
     अन्त में यह, की पोप का अब अधिपत्य समाप्त हो गया है, अतः वे सक्रामेंत के लिए नहीं जाते हैं और उसको घृणा करते हैं । यहाँ कहना अवश्यक है, की इस तरह हम किसी को विश्वास के लिए या सक्रामेंत के लिए जबरदस्ती नहीं करते हैं, और न कोई व्यवस्था देते हैं और न समय और जगह ठहराते हैं, परन्तु उपदेश देते हैं की हमारे दबाव और व्यवस्था के बिना भी और हम पद्रिओं को सक्रामेंत दिलाने के दबाव के बिना भी, जो कोई  सक्रामेंत नहीं चाहता है और लेता है, साल में कम से कम एक बार या चार बार , वह एक  सक्रामेंत से घृणा करता, मसीही नहीं है, उसी प्रकार जैसे कोई सुसमाचार पर विश्वास नहीं करता है, या उसको नहीं सुनता है, वह मसीही नहीं है क्योंकि यीशु मसीह ने नहीं कहा, "ऐसा मत करो", इसको घृणा करो" परंतु कहा 'ऐसा करो, जब तुम पियो, इत्यादि क्योंकि वह चाहता है ।  की ऐसा सचमुच किया जाय," ऐसा किया करो " इत्यादि उसने कहा ।
   जो कोई  सक्रामेन्त को विशेष नहीं समझाता है वह इसका चिन्ह है, की उसके लिए कोई पाप, न देह, न शौतन, न जगत, न मृत्यु, न जिखिम, न नरक है, अर्थात वह इनको नहीं मानता है,जौभी वह गले तक इसमें फसा हुआ है, और दोहरी रीति से शौतान का है  । इस तरह उसके लिए न कोई अनुग्रह, न जीवन, न पारादीस, न स्वर्ग राज्य, न यीशु और न ईश्वर के ही अच्छे काम है  । क्योंकि यदि वह विश्वास करता, की उसमें इतनी बुराइयाँ हैं, की उसको ईश्वर के अच्छे काम की आवश्यकता होती , तब तो वह सक्रामेन्त का, जिसमे इतनी अच्छाइयाँ दी जाती है, नहीं छोड़ देता । ऐसों का सक्रामेन्त के लिए जबर्दस्ती करने का भी आवश्यकता नहीं, क्योंकि वह स्वंय इसके लिये लालायित होगा और उसकी खोज करेगा और इसके लिए स्वंय आप को चलायगा, की आप उसके लिए सक्रामेन्त दें  ।
           अतः आप सक्रामेन्त के लिए कोई व्यवस्था न बनाएं, जैसे की पोप करता है ।परन्तु आप इस सक्रामेन्त के लाभ और हानि, आवश्य्कता और धार्मिकता, जोखिम और उद्धार को ही बतायें ; इस तरह वे आप के जबर्दस्ती के बिना ही जायेंगे , यदि वे नहीं आते हैं, तो उन्हें अनुभव करने दें और कहें की वे शैतान के हैं, और वे अपनी बड़ी आवश्यकता को और इश्वर के अनुग्रह को नहीं जानते हैं और अनुभव भी नहीं करते हैं  । परन्तु यदि आप उनको ऐसे बातें नहीं बतलाते हैं, या उनमें व्यवस्था और विष लाते हैं, तो यह आप का दोष होगा, की वे सक्रामेन्त से दूर रहते हैं , वे कैसे आलसी नहीं होंगे, यदि आप सोयेंगे, या चुपचाप रहेंगे? इसीलिए आप पाद्री और उपदेशकगण देखें, हम लोगों का पद पोप के अधीन के पद से भिन्न हो गया है , इसीलिए हमारे आगे अधिक परिश्रम और काम है, अधिक खरता और अदिक परीक्षाएं हैं, इसके बदले जग में कम वेतन एवं कम धन्यवाद , परन्तु मसीह स्वयं हम लोगों का फल होगा, जहाँ हम विश्वस्तता से काम करेंगे । इसके लिये सारे अनुग्रह का पिता हमारी सहायता करे, उसी का धन्यवाद , उसी की महिमा, सदलों हमारे प्रभु यीशु में होती रहे  ।
                                                                       आमीन  ।

भाग -1


    खण्ड 1 
     दस आज्ञा 
        पहली आज्ञा
  परमेश्वर तेरा ईश्वर मैं हूँ किसी दुसरे को ईश्वर मत मान ।
       इसका क्या अर्थ है ?
  हम सब वस्तुओं से अधिक ईश्वर का भय, प्रेम और भरोसा रखें ।

       दूसरी आज्ञा 
  किसी प्रकार की मूर्ति पूजा मत कर ।
     इसका क्या अर्थ है ?
  हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें ।
  हम किसी बनाई हुई वस्तु की पूजा- सेवा न करें ,न उसका नाम लें न उसके सामने झुकें ।
   कयोंकि ईश्वर आत्मा है और अवश्य है, की उसके भजन करने वाले आत्मा और सच्चाई से भजन करें ।
 
        तीसरी आज्ञा 
  परमेश्वर अपने ईश्वर का नाम अकारथ मत ले, कयोंकि ईश्वर, उसको जो उसका नाम अकारथ लेता है, निर्दोषी न ठहराएगा  । 
       इसका क्या अर्थ है ?
        हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
   हम उसके नाम से श्राप ना दें,  न किरिया खाएं, न टोना ओझाई करें ,न झूठ बोलें ,न ठगें  ।
       परन्तु सब बिपत्तिओं में उसकी दुहाई, बिन्ती, स्तुति और धन्यवाद करें  ।
 
       चौथी आज्ञा 
    बिश्रामवार को पवित्र रखने के लिए मत भूल  । 
       इसका क्या अर्थ है ?
     हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
    हम उसका वचन और धर्मोपदेश को तुच्छ न करें , परन्तु पवित्र मानकर आनंद से सुने और सीखें  ।
   
   
      पांचवीं आज्ञा 
  अपने माता-पिता का आदर कर, जिससे तेरा भला हो और पृथ्वी पर तेरा जीवन अधिक हो  । 
        इसका क्या अर्थ है ? 
        हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
    हम अपने माता-पिता और स्वामियों का अपमान ना करें, न ही उनको क्रोधित करें  ।
      परन्तु उनका सम्मान और सेवा करें , आज्ञा मानें और उनको प्यार करें  ।

       छठवीं आज्ञा 
     मनुष्य हत्या मत कर  । 
       इसका क्या अर्थ है ? 
    हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
    हम अपने पड़ोसी की देह और प्राण को किसी प्रकार की हानि और दुःख ना पहुँचाएँ , परन्तु देह और प्राण की बिपत्ति में उसकी सहायता और भलाई करें  ।
 
       सातवीं आज्ञा 
     व्याभिचार मत कर  । 
     इसका क्या अर्थ है ?
   हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
   हम अपने मन, वचन और कर्म में शुद्ध और संयमी होकर जीवन बिताएं और हरएक स्त्री-पुरुष , परस्पर प्रेम और आदर करें  ।
 
       आठवीं आज्ञा 
       चोरी मत कर  । 
      इसका क्या अर्थ है ?
   हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
   हम अपने पड़ोसी का धन-सम्पत्ति न छिन्नें ,ना छल कपट से अथवा अनैतिक रूप से उसकी सम्पत्ति को अपनाकर भ्रष्ट बने ,परन्तु उसके धन-सम्पत्ति और जीविका की वृद्धि और रक्षा में सहायता करें  ।
         नौवीं आज्ञा 
     अपने पडोसी पर झूठी साक्षी मत दे  । 
     इसका क्या अर्थ है ? 
    हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
   हम अपने पडोसी से झूठ ना बोलें, ना उसका भेद खोलें ना चुगली, ना मिथ्या अपवाद करें, परन्तु जहाँ तक बन पड़े उसका पक्ष लें, उसका आदर आदर करें और यत्न से उसको भला ठहराएं  ।

          दसवीं  आज्ञा 
  अपने पड़ोसी के घर और उसके परिवार का लालच मत कर  ।
        इसका क्या अर्थ है ?
   हम ईश्वर का भय और प्रेम रखें  ।
   हम अपने पड़ोसी के घर द्वार , खेत और मवेशियों पर लोभ की दृष्टी ना रखें, ना बहाना करके उनको अपनाएं ना उसकी स्त्री , दास- दासी को फुसलाएं  या बिगाड़ें , परन्तु यत्न करें की जो कुछ
उसका है, कुशल से उसके पास रहे और उसके कम आये  ।
                   ईश्वर इन सब आज्ञाओं के विषय में क्या कहता है ?
   ईश्वर यों कहता है, की मैं परमेश्वर तेरा प्रभु ज्वलित ईश्वर हूँ ।मैं पुर्बजों के अपराध का दण्ड , उनके पुत्रों को, जो मुझ से बैर रखते हैं, उनकी तीसरी और चौथी पीढ़ी तक देता हूँ  । परन्तु सहस्रों , पर
    जो मुझे प्यार करते और मेरी आज्ञाओं का पालन करते हैं, मैं दया करता हूँ  ।
                             इसका क्या अर्थ है ? 
    ईश्वर उन सभों को दण्ड देने के लिए धमकता है, जो उसकी आज्ञाओं का उलंघन करते हैं , इसलिए हम ईश्वर के क्रोध से डरें और उसकी आज्ञाओं का बिरोध ना करें  ।
   फिर वह अपने अनुग्रह और सारी भलाई की प्रतिज्ञा उन सभों को देता है, जो इन आज्ञाओं को मानते हैं, इसलिए हम उसको प्यार भी करें, उस पर भरोसा  रखें और आनंद से उसकी आज्ञाओं का पालन करें  ।

भाग -1

                    खण्ड -2
            प्रेरितों का विश्वास दर्पण  
                      पहला भाग 
                  सृष्टी के विषय में 

 मैं विश्वास करता हूँ, परमेश्वर पिता पर , जो स्वर्ग और पृथ्वी का सर्वशक्तिमान सिरजनहार है  ।
         इसका क्या अर्थ है ? 
    मैं मानता हूँ , की ईश्वर ने मुझे और सब सृष्टी को सृजा । वह मुझे देह और प्राण, आंख-कान और सब चैतन्य  और सब इन्द्रियाँ  देकर अब तक पालन करता है  ।
     इसके अतिरिक्त मुझे ओढना ,बिछौना ,खाना-पीना , घर- बार ,स्त्री , बच्चे, खेत-मवेशी और सब संपत्ति , देह और प्राण के सब आवश्यक पदार्थ और आहार बहुताई से प्रतिदिन पहुंचाता है । वह जोखिमों से बचाता और सब आपद से रक्षा करता है ।
 यह सब मेरे गुण और योग्यता से नहीं परन्तु ईश्वर स्वयं अपनी निरी पैतृक ईश्वयीय भलाई और दया से करता है  ।
    तो अवश्य  है , की मैं उसका धन्यवाद और प्रशंसा करूँ, उनका सेवक और आज्ञाकारी बना रहूँ  । यह नि:संदेह सत्य है  ।
   
          दुसरा भाग 
          त्राण के विषय में 
       और उसके एकलौते पुत्र , अपने प्रभु यीशु ख्रिस्त पर,जो पवित्र आत्मा से गर्भ में आया ,कुँवारी मरियम से उत्पन हुआ, पंतियुस पिलातुस की आज्ञा से दुःख उठाया , क्रूस पर चढ़ाया गया ,मर गया और गाडा गया, पाताल में उतरा , तीसरे दिन मृतकों में से जी उठा , स्वर्ग पर चढ़ गया और परमेश्वर सर्वशक्तिमान पिता के दाहिने हाथ बैठा है , जहाँ से वह जीवतों और मृतकों का विचार करने को फिर आयेगा ।
                                             इसका क्या अर्थ है ?
    मैं मानता हूँ की यीशु ख्रिस्त मेरा प्रभु है । जो सच्चा ईश्वर होकर अनादि काल से पिता से उत्पत्र और सच्चा मनुष्य भी होकर कुँवारी मरियम से उत्पन्न हुआ  ।
              उसने मुझे खोए श्रापित मनुष्य का उद्धार किया और मुझे सब पाप , मृत्यु और शैतान के अधिकार से बचाया  ।
     उसने सोने और रुपे से नहीं परन्तु अपने पवित्र अनमोल लोहू और अपने निर्दोष कठिन दुःख-भोग और मृत्यु के द्वारा मुझे बचाया , की मैं उसी का होऊँ , उसके  अधीन होकर उसके राज्य में जिऊँ और अनंत धर्म-परायणता , निर्दोषता और ईश्वरीय कृपा में उसकी सेवा करूँ कयोंकि जैसे वह मृतकों में से जी उठा और सदालों जीता और राज्य करता है । यह नि:संदेह सत्य है ।


         तीसरा भाग 
       पवित्रीकरण के विषय में 
    मैं विश्वास करता/करती हूँ , पवित्र आत्मा पर, एक ही पवित्र ख्रिस्तानी कलीसिया , पवित्रों की संगत पर, पापों की क्षमा , देह के जी उठने और अनन्त जीवन पर, आमीन ।
                         इसका क्या अर्थ है ?
      मैं मानता/मानती हूँ की मैं अपनी चेतना और शक्ति से अपने प्रभु यीशु ख्रीस्त पर किसी प्रकार न तो विश्वास कर सकता , न उसके पास पहुँच सकता/सकती हूँ  ।
     परन्तु पवित्र आत्मा ने मुझे मंगल समाचार के द्वारा बुलाया, अपने दानों से प्रकाशमय और सच्चे विश्वास में पवित्र और स्थिर किया । जैसे वह पृथ्वी पर सम्पूर्ण ख्रिस्तानी मंडली को बुलाता, बटोरता , प्रकाशमय
और पवित्र करता है और यीशु ख्रिस्त में एकही सच विश्वास के द्वारा स्थिर करता रहता है, इसी कलीसिया में वह प्रतिदिन मेरे और सब विश्वासियों के सारे पाप अनुग्रह से क्षमा करता है , और हम सभों को महाविचार के दिन मृतकों में से जिला उठाएगा और मुझे और सब ख्रिस्त विश्वासियों को अनन्त जीवन देगा , यह नि:संदेह सत्य है  ।

भाग -1

          खण्ड -3
       प्रभु की प्रार्थना  
     हे हमारे पिता ,तू जो स्वर्ग में है । 
          इसका क्या अर्थ है ? 
  इस प्रवेशन के द्वारा ईश्वर प्रेम से हमको प्रेरित करता है , की हम निश्चय विश्वास करें , की वह हमरा सच्चा पिता है और हम उसकी सच्ची संतान हैं ।
         जिसमे हम भरोसा और साहस के साथ उससे निबदन करें जैसे प्रिये बच्चे कुछ संदेह न करके अपने माता-पिता से किसी बात का निबेदन करते हैं ।
                       
                   पहली बिनती 
             तेरा नाम पवित्र किया जाए ।
 
         इसका क्या अर्थ है ?
    ईश्वर का नाम तो आप ही पवित्र है, परन्तु हम इस बिनती में मांगते हैं , की वह हमारे बीच में पवित्र किया जाए ।
        यह कैसे होता है ?
जब ईश्वर का वचन निर्मल और निष्कपट रीती से सिखाया जाता है और हम ईश्वर के संतानों के समान उसके अनुसार धार्मिकता से जीते हैं  । हे प्रिय , स्वर्गवासी पिता हमारी सहायता कर कि ऐसा ही हो ।
  परन्तु जो ईश्वर के वचन को भित्र सिखाते और जीते हैं , वे हमारे बीच में ईश्वर के नाम को अपवित्र करते हैं, हे स्वर्गवासी पिता, उनसे हमको बचा ।
                       
                दूसरी बिनती 
                   तेरा राज्य आए । 
  ईश्वर का राज्य हमारे निबेदन के बिना आप से तो आता है परन्तु हम इस बिनती में मांगते हैं कि वह हमारे पास भी पहुंचे ।
                              यह कैसे होता है ?
 जब स्वर्गवासी पिता हमको अपना पवित्र आत्मा देता है , कि हम उसके अनुग्रह के द्वारा उसके पवित्र वचन पर विश्वास करें और जैसे इस काल में, वैसे ही अनंत कल में पवित्रता से जियें ।

               तीसरी  बिनती 
            तेरी इच्छा जैसे स्वर्ग में वैसे पृथ्वी पर भी हो ।
                  इसका क्या अर्थ है ? 
 ईश्वर की उत्तम और करुणामय इच्छा हमारे निवेदन के बिना भी होती है , परन्तु हम इस बिनती में मांगते हैं, कि वह हमारे बीच में भी हो ।
                  यह कैसे होता है ? 
 ईश्वर सब बुरे विचारों और शैतान के सांसारिक अभिप्रायों और हमारी इच्छाओं को, जो हमें ईश्वर के नाम को पवित्र करने और उसके राज्य को हमारे पास पहुचने नहीं देते हैं, उनको रोकता और भंग करता है , वरन अपने
वचन और विश्वास में हमारे जीवन के अंत तक हमारी दृढ़ रक्षा करता है । यही उसकी उत्तम और करुणामय इच्छा है ।
        चौथी  बिनती 
  हमारी प्रतिदिन की रोटी आज हमको दे ।
          इसका क्या अर्थ है ? 
 ईश्वर प्रतिदिन की रोटी हम सभों को , वरन बुरे लोगों को भी उनके मांगने के बिना देता है । परन्तु हम इस निवेदन में मांगते हैं कि वह हमें इस कृपा को जनाए और हमारी प्रतिदिन की रोटी धन्यवाद सहित ग्रहण करने दे ।
       
       प्रतिदिन की रोटी का क्या अर्थ है ? 
 इसका यह अर्थ है की सब कुछ जो हमारे प्रतिपालन के लिए आवश्यक है ,उसकी पूर्ति ईश्वर की ओर से होती है अर्थात् खाना-पीना , ओढ़ना-बिछौना , घर-द्वार , खेत-मवेशी, चीज-वस्तु, धन-संपत्ति, भक्त स्त्री-पुरुष , भक्त बच्चे , भक्त दास-दासी, भक्त और विश्वस्त शासक, राज्य की सुदशा, सुखदायक ऋतु , देश का कुशल चैन , आरोग्यता ,सुव्यवहार, मान, मर्यादा , सच्चे मित्र, विश्वस्त पड़ोसी, इत्यादि ।


           पांचवीं बिनती 
          और हमारे अपराधों को क्षमा कर, जैसे हम भी अपने अपराधिओं को क्षमा करते हैं ।
               इसका क्या अर्थ है ? 
  हम इस निवेदन में मांगते हैं, कि स्वर्गवासी पिता हमारे पापों पर दृष्टी ना करें और उसके कारण हमारी बिनती को अनसुनी ना करे, कयोंकि हम जो कुछ मांगते हैं , उसके योग्य हम नहीं ठहारते हैं । जौभी कि हम प्रतिदिन अनेक पाप करते और केवल दण्ड ही कमाते हैं , परन्तु वह हमको अपने अनुग्रह और भलाई में सब कुछ दे ऐसा निवेदन करते हैं ।
   हम भी मन से उनको क्षमा करेंगे, जो हमारे प्रति अपराध करते हैं और बुराई के बदले आनंद से भलाई करेंगे ।                           
             छटवीं   बिनती 
       और हमको परीक्षा में मत डाल । 
                 इसका क्या अर्थ है ? 
  ईश्वर तो किसी की परीक्षा नहीं करता है , परन्तु हम इस निवेदन में मांगते हैं, की वह आप हमारी रक्षा करके हमको संभाले , की शैतान, संसार और हमारा शरीर हमको ना ठगे, ना मिथ्या विश्वास, संदेह और निराशा में गिराए और दूसरे कठिन कुकर्म और बुराई में ना डाले , और हम ऐसी परीक्षाओं से  कितना ही व्याकुल  किये जाएँ तौभी ना गिर पड़ें, परन्तु अंत में जय प्राप्त करें ।
         
         सातवीं बिनती 
              परन्तु बुरे से छुड़ा । 
              इसका क्या अर्थ है ? 
  हम इस निवेदन में सब बिनतीयाँ मिला कर मांगते हैं , की हमारा स्वर्गवासी पिता हमको देह और प्राण, धन-संपत्ति और मर्यादा को सब हानी और जोखिम से बचाए और अन्त में जब मरने की घड़ी पहुंचे, तब धन्य मृत्यु प्रदान करे  और हमको अपने दयापूर्ण उपकार के द्वारा इस दुःख सागर से पार करके अपने पास स्वर्ग में ग्रहण करे ।

          आठवीं बिनती 
       कयोंकि राज्य और पराक्रम और महिमा सदा तेरे हैं, आमीन । 
                  आमीन । 
                  इसका क्या अर्थ है ? 
  हमको निश्चय हो कि ऐसी बिन्तियाँ हमारे स्वर्गवासी पिता के आगे ग्रह्वा होती हैं, कयोंकि उसने आप ही हमको आज्ञा दी है की हम इस प्रकार से मांगें और उसने सुनने की प्रतिज्ञा की है । आमीन, आमीन अर्थात सच, नि:संदेह ऐसा ही होगा ।